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प्रसिद्ध रंगकर्मी रंजीत कपूर को हिन्दी रंगमंच का राजकपूर कहा जाता रहा है। उनके प्रशंसकों का दायरा कई पीढ़ियों तक फैला है। अगर ऐसा न होता तो उनसे उनके 1977 के नाटक 'बेगम का तकिया' को तीन दशकों से अधिक समय बाद पुनर्जीवित करने का अनुरोध आखिर क्यों होता है? रंगमंच का उनका अपना मुहावरा है लेकिन कम ही लोग जाते हैं कि उनका जीवन कितना संघर्षों भरा, उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर गुजरा है। ये संघर्ष उनके पेशे के भी रहे हैं और पारिवारिक भी। उन्हें आज भी यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होती कि मैं पैसों के लिए फिल्मों का रुख करता हूं। उनकी अभिनेत्री बेटी ग्रूशा कपूर सिंह ने हमारे खास अनुरोध पर उन पर यह आलेख तैयार किया है जिसमें न सिर्फ उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलू खुलते हैं बल्कि परिवार के रंगमंच पर एक रंगकर्मी पिता की भूमिका का भी पता चलता है। कहने की जरूरत नहीं कि रंजीत कपूर अपने नाटकों की तरह ही इस रंगमंच पर भी अनूठे हैं।
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मेरे लिए पापा रंजीत कपूर के बारे में लिखना बहुत मुश्किल भी है और शायद आसान भी। मुश्किल इसलिए कि ढाई-तीन साल की उम्र से लेकर आज तक के न जाने कितने लम्हे, कितनी सारी बातें हैं कहने को, मुश्किल यह है कि किन्हें लिखा जाय और किन्हें छोड दिया जाय! कह सकती हूं कि उनके बारे में मैं इतना कुछ लिख सकती हूं कि किताबों के कई-कई खण्ड निकाले जा सकते हैं। मैं कह सकती हूं कि मैं उन्हें समझती हूं। उनका मुझ पर गहरा प्रभाव है, हमारे स्वभाव मिलते हैं, आज मैं जो कुछ हूं उनकी वजह से हूं और मैं एक लम्बे समय तक उनके सारे नाटकों, उनके पूर्वाभ्यासों की साक्षी रही हूं।
मैं अभिमन्यु तो नहीं, लेकिन मां की गर्भ में रहते हुए बाहर की दुनिया की जो बातें मेरे कानों ने लगातार सुनी होंगी, उनमें ज्यादातर शायद मेरे पिता के नाटकों के संवाद ही रहे होंगे। मैं जब पेट में थी तो पापा के प्रसिद्ध नाटक 'बेगम का तकिया' का रिहर्सल चल रहा था और मेरी मां उसमें अभिनय कर रही थी। तो कह सकती हूं कि पापा के नाटकों का प्रभाव मुझ पर तब से ही पड़ने लगा होगा। आज अगर याद करूं कि पापा से जुड़ी वह कौन सी बात होगी जो सबसे पुरानी होगी तो मुझे मवाना की घटना याद आती है। मेरी उम्र लगभग तीन साल या उससे भी कम होगी। हरियाणा के मवाना में कार्यशाला चल रही थी। हम एक गेस्ट हाउस में रुके थे। पापा मुझे साथ ही कार्यशाला में ले जाते थे। हमें आने में रात हो जाती थी और चौकीदार कमरे की चाभी को दरवाजे के बाहर पायदान के नीचे रखकर चला जाता था। एक रात थोड़ी अधिक देर हो गयी। हमने पायदान टटोला तो वहां चाभी भी नहीं थी। हमने पूरी रात दरवाजे पर ठण्ड में बितायी। मुझे अच्छी तरह याद है कि पापा ने मुझे अपनी कोट में ढंक लिया था। वह पायदान बहुत सख्त था लेकिन हम ठण्ड में रात भर उसी पर पड़े रहे। पापा के कई दोस्त पास में ही रहते थे लेकिन पापा ने किसी को जगाना ठीक नहीं समझा। बाद में मैं धीरे-धीरे समझने लगी कि यह कोई अनूठी बात नहीं थी। वास्तव में अपने काम के लिए किसी को परेशान करना पापा के स्वभाव में ही नहीं है। दूसरे दिन जब मुझे बुखार हो गया तो डाक्टर ने इंजेक्शन लगाने को कहा। पापा मुझे इंजेक्शन लगता नहीं देख पाये और कमरे से बाहर चले गये। आज भी उनके मवाना के दोस्त उस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि तेरे पापा ने हमें इतना काबिल भी नहीं समझा कि रात में हमें जगा सकें। लेकिन मेरे पापा हैं ही ऐसे। किसी को परेशान करना उनके स्वभाव में नहीं है। इसे आप उनका स्वाभिमान भी कह सकते हैं।
उसके अगले साल जब मैं स्कूल जाने लगी तो मेरी शिकायतें भी पापा तक पहुंचतीं। मण्डी हाउस के संगीत भारती में जब मैं शायद प्री नर्सरी में थी, मेरी टीचर ने पापा को बुलावा भेज दिया। टीचर ने शिकायत की थी कि आपकी बेटी बहस बहुत करती है। टीचर का कहना था कि कल जब वह कविता सुना रही थीं तो आपकी बेटी यानी मैं, दरवाजा के उच्चारण को लेकर काफी देर तक बहस करती रही। पापा ने जब पूरी बात सुनी तो मेरा ही पक्ष लेते हुए कहा कि मेरी बेटी सही कह रही है। आप किवाड़ या कोई दूसरा शब्द भी प्रयोग कर सकती हैं लेकिन अगर उर्दू का शब्द है तो आपको नुक्ते का, उच्चारण का ध्यान रखना ही होगा। ऐसी कई घटनाएं हैं जब पापा मेरे पक्ष में खड़े रहते हैं। वास्तव में पापा ने हमेशा सही के लिए मेरा साथ दिया है। उन्होंने ही मुझे सच के लिए संघर्ष करना सिखाया है। वे आम मध्यमवर्गीय पिताओं की तरह नहीं हैं। वे अपरम्परागत पिता हैं। ऐसी कई घटनाएं हैं जब वे परम्परागत पिताओं से अलग व्यवहार करते नजर आते हैं। मुझे याद है कि इसी प्रकार जब मैं छठी-सातवी में थी और गणित में फेल हो गयी तो टीचर ने पापा से शिकायत करते हुए कहा कि यह दूसरे विषयों में तो बहुत अच्छी है लेकिन गणित में फेल हो गयी है। आप इसे डांटिए। मेरे पापा ने टीचर से कहा था कि मैडम जब मैं ही गणित में पास नहीं हो पाया तो इसे क्या कह सकता हूं?
कहने की जरूरत नहीं कि मेरा बचपन भी तमाम दूसरे रंगकर्मियों के परिवारों की तरह अभावों में बीता। हमारे घर दीपावली तब मनती जब पापा को छोटी दीपावली पर कहीं से पैसा मिल जाता था। जाड़ों में गर्मियों के कपड़ों से ही काम चलाना पड़ता था। स्कूल का बैग तीन-तीन साल तक चलता, जब तक पूरी तरह फट नहीं जाता। जाड़ों में गर्मियों की स्कर्ट पहनकर जाती थी। एक बार तो मेरी टीचर ने शिकायत की कि मैं फैशन में ऊंचा स्कर्ट पहनकर आती हूं जबकि वास्तविकता यह थी कि स्कर्ट छोटी हो गयी थी और नयी स्कर्ट के लिए पैसे नहीं थे। एक बार ऐसे ही फीस जमा न करने के कारण मेरा नाम काट दिया गया। मुझे बाहर खड़ा कराकर पापा को बुलावा भेजा गया। पापा आए तो टीचर ने उनसे कहा कि कपूर साहब, आप फीस माफ क्यों नहीं करा लेते? इस पर मेरे पापा ने जवाब दिया था कि मुझे फीस माफ कराने की जरूरत नहीं क्योंकि मैं फीस जमा करने में सक्षम हूं। बस दिक्कत यह है कि मैं फ्रीलांसर हूं और कई बार समय पर पैसे नहीं मिल पाते हैं। अगर आपको फीस माफ करनी है तो किसी चित्रकार या संगीतकार के बच्चे का कर दीजिए। मुझे याद है कि प्रसिद्ध चित्रकार जतिन दास की बेटी, नंदिता दास, जो बाद में प्रसिद्ध अभिनेत्री और निर्देशक बनीं, मेरी सहपाठी थीं और उनके हालात भी ऐसे ही थे। इसके बाद मेरे पिता ने टीचर से सवाल किया था कि आपके विद्यालय में कितने बच्चों की फीस समय पर जमा नहीं हो पाती है? टीचर ने कहा था कि सिर्फ आपकी बेटी की। तो पापा बोले थे कि क्या आपके विद्यालय की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वह एक विद्यार्थी के समय पर फीस जमा न कर पाने के कारण चरमरा जाता है? टीचर इसका कोई जवाब नहीं दे पाये थे। यह देश का दुर्भाग्य है कि मेरे पापा की तरह सृजनात्मक कार्यों में लगे तमाम कलाकारों के बच्चों को अभाव का जीवन जीना पड़ता है। हालांकि फ्रीलांसिंग के साथ ही पापा के साथ इसकी एक वजह और भी थी। मेरे पापा अक्सर टाइम पर नहीं लिख पाते। वास्तव में वे तभी लिखते हैं जा उनका मूड होता है। एक बार तो मुझे निबन्ध लिखकर स्कूल में देना था। मैं पापा से कहती रही और पापा का मूड नहीं बन पाया, वे टालते रहे। फिर एक दिन गुस्से में मैंने इसे खुद ही लिख डाला और प्रथम आ गयी। पापा हैरान हुए।
लेकिन ऐसा होना अचानक नहीं था। मेरा बचपन अभावों में होने के बावजूद भरा-पूरा था, सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध था। जब गर्मियों में दूसरे बच्चे शिमला और नैनीताल जाते थे, हमें हमारे पापा अकीरा कुरोसावा का फिल्म फेस्टिवल देखने ले जाया करते थे। मैंने जो सबसे पहली फिल्म देखी वह 'सेवन समुराई' थी। स्थिति थोड़ी अच्छी होती तो पापा वीसीआर किराए पर ले आते। छठी कक्षा तक आते-आते मैं सत्यजीत राय का पूरा सिनेमा देख चुकी थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि 'पाथेर पंचाली' देखकर मैं अवसाद में चली गयी थी। काम वाली बाई को फिल्म की कहानी सुनाती और रोती रहती थी। सिनेमाहाल में उन्होंने जो पहली फिल्म दिखायी वह 'छोटा चेतन' थी। ज्यादातर वे हमें अंग्रेजी फिल्में ही दिखाया करते थे। कुरोसावा हों, सत्यजीत राय या फिर ऋषिकेश मुखर्जी, गालिब से लेकर मजाज और मजरूह सुल्तानपुरी, और फिर सलील चौधरी हों या लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल-इन सासे काफी पहले ही मुझे परिचित करा देने वाले मेरे पापा ही थे। मेरा बचपन रंगमंच और सिनेमा के बीच ही बीता। बेगम का तकिया, खबसूरत बहू, नेकलेस, पैर तले की जमीन, मुख्यमंत्री जैसे उनके ज्यादातर नाटकों के प्रदर्शन, पूर्वाभ्यास मैंने देखे हैं। कह सकती हूं कि ऐसी चीजें मुझे खून में मिलीं। शायद यही कारण था कि छठी कक्षा में थी तो साहित्य कला परिषद की कार्यशाला के लिए विजयदान देथा की कहानी का नाट्य रूपान्तर कर डाला जिसे मेरी मां ने निर्देशित किया और मैंने उसमें भूमिका भी की।
लेकिन इन सारी बातों के बावजूद मुझे अभिनेत्री नहीं बनना था, मुझे तो वकील बनना था। मेरा मन पढ़ने में लगता था। लोगों के यहां इम्तिहान के दिनों में टीवी के केबिल काटे जाते हैं, मुझे पापा कहा करते थे कि कितना पढ़ोगी, थोड़ी देर टीवी देख लो। मुझे याद है कि पढ़ते समय नींद न आ जाए, इसलिए मैं आलमारी पर कापी-किताब रख लेती और सोफा पर चढ़कर खड़े-खड़े पढ़ाई किया करती। लेकिन मेरा अभिनेत्री बनना शायद तय था। हालांकि मुझे आज भी लगता है कि मैं एक्टर नहीं हूं, अभिनय कर लेती हूं। हां, डाइरेक्टर बनने की महत्वाकांक्षा जरूर बाद में हुई। हुआ यूं कि बोर्ड के पहले की छुट्टियां थीं और राजा बुन्देला जी ने मेरी मां को बताया कि रमन कुमार 'तारा' के लिए अभिनेत्री की तलाश में हैं। मेरा चयन हो गया। मुझे भी नहीं मालूम था कि यह धारावाहिक इतना लम्बा चलेगा और मेरी भूमिका इतनी पसन्द की जाएगी। मैं मुम्बई में ही रहने लगी। पहले पापा फिल्मों के काम के सिलसिले में दिल्ली से मुम्बई आते और काम करके चले जाते। जब मैं यहां रहने लगी तो वे भी यहीं रहने लगे। लेकिन पापा ने कभी मेरे काम को लेकर कोई नसीहत नहीं दी। हां, वे अक्सर पटकथा लेखन जरूर मुझे समझाते रहते। छोटी कहानी बताते और शॉट डिविजन करने को कहते। मसलन कहते कि किसी को सुबह साढ़े नौ की लोकल ट्रेन पकड़नी है। मैं उसके दृश्य बनाती, जैसे वह चाभी भूल जाता है, नल खुला रह जाता है..। वे अक्सर मुझे एक संवाद देते-राजू लाल रंग के जूते पहनता है। इसे अलग-अलग तरह से बोलने को कहते। इससे पता चलता कि पंच कहां है। 'तारा' में देवयानी का चरित्र बहुत सशक्त था और इसने मुझे गहरे तक अपने प्रभाव में ले लिया था। मुझे यह लगता था कि देवयानी मैं ही हूं। इसलिए जब एक बार एक ऐसा प्रसंग आया कि देवयानी को विलेन के साथ समझौता करना था, मैं विचलित हो उठी। मैंने पापा को फोन किया तो उन्होंने कहा कि सीधे घर पहुंचो। मैं घर आ गयी। पापा ने रमन कुमार से कहा कि वे पहले मुझे (पापा को) इस प्रसंग की जरूरत के बारे में सहमत करें। रमन कुमार इस प्रसंग का तर्क नहीं दे सके और पापा सहमत नहीं हुए। इस दौरान मैंने 'तारा' छोड़ने का विचार भी कर लिया लेकिन फिर मैंने खुद को समझाया कि इसे व्यावहारिक या कहें कि व्यावसायिक ढंग से सोचने की भी जरूरत है। मुझमें और पापा में फर्क यही है। वे जिन बातों से सहमत नहीं होते उन्हें लेकर कई बार दृढ़ हो जाते हैं, सख्त हो जाते हैं। मैंने 15-16 साल की उम्र में 'महायुद्ध' नामक फिल्म साइन की थी, जिसमें परेश रावल, मुकेश खन्ना भी थे। पापा उसकी स्क्रीनिंग देखने आए तो बोले कि यह बकवास फिल्म है। मेरी दुआ है कि यह फिल्म कभी प्रदर्शित ही न हो। फिर भी मुझे मालूम है कि पापा बच्चों के काम में टांग अड़ाने वाले पापा नहीं हैं, वे ध्यान रखने वाले पापा हैं, इण्टरफियर करने वाले नहीं हैं, केअर करने वाले हैं। मैंने उनके साथ कई नाटक, धारावाहिकों और फिल्मों में काम किया है। वे अक्सर मेरे बारे में कहते हैं कि मैं 'डाइरेक्टर डिलाइट' हूं। लेकिन मैं उनके साथ सिर्फ बेटी होने के कारण काम नहीं करती। उनकी फिल्म 'चिण्टू जी' के लिए भी मैंने पैसे मांगे थे। वास्तव में मैं व्यावसायिक ढंग से भी सोचती हूं। वे नहीं सोच पाते। उनमें भोलापन है। चाटुकारिता नहीं की,काम के साथ बेईमानी नहीं की। दिल से काम करते है, तभी तो नाटकों में वह चीज दिखती है। भारंंगम में जब उनका नाटक हुआ तो बैठने की जगह नहीं थी। लेकिन भोलेपन के कारण कई बार राजनीति के शिकार भी हो जाते हैं। वे अपना नफा नुकसान नहीं सोच पाते हैं। उन्हीं से सुना था कि एनएसडी की परीक्षा में कलम ले जाना भूल गये। सहपाठी पंकज कपूर (प्रसिद्ध अभिनेता) के पास दो कलम थी तो उनसे एक कलम मांगी लेकिन पंकज ने मना कर दिया। पापा ने कहा कि तू अगर पेन नहीं देगा तो मैं परीक्षा छोड़ दूंगा। परीक्षा छोड़कर आ गये, हालांकि पंकज कपूर भी दुखी होकर परीक्षा नहीं दे सके। एनएसडी के निदेशक इब्राहिम अल्काजी को पता चला तो उन्होंने अलग से परीक्षा की व्यवस्था की।
घर वाले कहते हैं कि मेरा व्यक्तित्व मेरे पापा पर ही गया है। मेरे भाई की शक्ल मां से मिलती है और मैं पापा के करीब हूं। शादियों में नहीं जाना, किताबें पढ़ते रहना हम दोनो की आदत है। जेम्स हेडली चेज की शायद ही कोई किताब उनसे छूटी हो और मुझसे भी। मुम्बई में रहते हुए भी कई-कई दिनों तक फोन नहीं करते और मुझे भी फोन करने की आदत नहीं लेकिन मिलने पर लगता है जैसे कल ही बात हुई हो। हां, पापा थोड़े ज्यादा चटोरे हैं। गोलगप्पे, कबाब, बिरयानी अब मैं उनकी तरह खाने से बचती हूं। हिन्दुस्तान के किसी कोने में चले जाइए उन्हें मालूम है कि शहर में सबसे अच्छा पान कहां मिलता है! मेरी मां कहती है कि तुमने पापा की सारी बुराइयां अपना ली हैं। मेरी दादी कमल शबनम कपूर शायरा थीं। उन्होंने फिराक गोरखपुरी के मुशायरा शिरकत किया था। पापा को भी लिखने का शौक रहा। 19 साल की उम्र में 'नींद' कहानी लिखी जो सारिका में छपी। किसी दोस्त ने धोखा दिया तो लिखा-'कैसे भूलूंगा मैं वो साथ निभाना उसका, दस्त में दूर तलक छोड़कर जाना उसका..'। जीवन में उन्होंने बहुत संघर्ष देखा है। मेरे भाई को मेननजाइटस हो गया था। उसका दिमाग तीन साल का ही रह गया, 27 साल की उम्र में उसका देहान्त हुआ। पिण्टू नाम था उसका। पापा के लिए उसी दौरान सरकारी नौकरी का आॅफर आया लेकिन घर में बीमार बच्चे को छोड़कर नहीं जा सके। मेरी मौसी ने तो पिण्टू की सेवा में ही अपना जीवन गुजार दिया। वे उसकी मौत पर नहीं आए थे, कहते थे कि मैंने तो उसे पहले ही मरा हुआ मान लिया था। लेकिन इतनी समस्याओं, संघर्षों के बावजूद पापा को कभी परेशान, कभी निराश नहीं देखा। आज सोचती हूं तो लगता है कि यह भी हो सकता है कि वे परेशान होते हों लेकिन दिखाते न हों। आशावादी हैं। जा भी मिलिए पान घुलाए हुए, जोश से भरे हुए मिलेंगे। हमेशा यह बताते हुए कि जीवन लम्बा नहीं होना चाहिए, जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए।