अप्पा जी (गिरिजा देवी) का एक पुराना साक्षात्कार पढ़ रहा था। ये साक्षात्कार मैंने तब का है, जब वह दूरदर्शन केन्द्र के बुलावे पर लखनऊ आईं थीं, करीब डेढ़ दशक पहले। इस समारोह में उनके साथ तबले पर प्रसिद्ध तबला वादक पंडित किशन महाराज थे और बनारस के दो दिग्गज कलाकारों की इस प्रस्तुति को दूरदर्शन ने जुगलबंदी का नाम दिया था। हालांकि शास्त्रीय संगीत में तकनीकी तौर पर यह जुगलबंदी नहीं थी, वास्तव में इसे गिरिजा देवी के गायन में तबले पर किशन महाराज की संगत ही कहा जाएगा लेकिन इस आयोजन ने एक खास बात की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया। अप्पा से भी यही चर्चा हुई कि आखिर अब ऐसे कार्यक्रम कम क्यों होते जा रहे हैं? गायक, वादक या नर्तक अपने संगतकार लेकर चलते हैं या पहले से तय रखते हैं। ये संगतकार अक्सर उनके साथ ज्यादातर कार्यक्रमों में संगत करते हैं जिससे एक किस्म का अभ्यास होता है, रचनाएं पता होती हैं और सब कुछ यंत्रवत लगता है। जबकि हमारा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत तो इस जड़ता या यंत्रवत होते जाने को तोड़ते जाने का संगीत है, उसका समाख्यान है। आखिर एक ही राग और बंदिशों को बार-बार गाते जाने के बावजूद कलाकार हर बार एक नया प्रभाव रचते हैं। इसी कारण ख्याल या उपज जैसे नाम इससे जुड़े हुए हैं। नई कल्पना, नए विचार ही हर बार प्रस्तुति में नए रंग भरते हैं और संगत इसका एक महत्वपूण हिस्सा है। जब मंच पर ये आकस्मिक ढंग से होता है तो इनमें एक किस्म की सच्चाई होती है, एक अलग प्रभाव होता है जो बार-बार के तय संगतकारों में दुर्लभ हो चला है। आज होता यह है कि बड़े से बड़ा कलाकार अपने साथ अक्सर युवा और कम लोकप्रिय संगतकार की संगत रखता है। वह समारोहों के लिए उनके नाम भी सुझाता है। ये वे संगतकार होते हैं जो नियमित तौर पर उनके साथ संगत करते होते हैं, उनका पहले से अभ्यास रहता है। गायन, वादन और नृत्य में ऐसा खूब हो रहा है तो संगीत में वह सच्चाई भी लुप्त हो चली है।
गिरिजा देवी ने इस पर चिंता जताते हुए साक्षात्कार में कहा था, 'शीर्ष और नामी कलाकारों की संगत में गायक, वादक या नर्तक कम कार्यक्रम करते हैं तो इसकी कई वजहें हैं। अव्वल तो आयोजक ही ऐसा नहीं चाहते हैं क्योंकि इसमें धन अधिक खर्च होता है। उन्हें लगता है कि इतना धन खर्च कर दो कार्यक्रम हो सकता है। दूसरी बात यह भी है कि आज शास्त्रीय संगीत में पहले जैसी सच्चाई नहीं रह गई है। दर्शकों में भी वैसा ज्ञान नहीं रह गया है। इसीलिए ऊपरी दिखावा अधिक होता है, वह गहराई नहीं आ पाती है। यही कारण है कि दो शीर्ष कलाकार साथ बैठकर वैसी मेहनत करने से कतराते भी हैं। एक और बात भी महत्वपूर्ण है और वह यह कि हर कलाकार को अपना नाम, अपनी इज्जत प्यारी होती है। कोई कलाकार नहीं चाहता है कि उसके साथ बैठे कलाकार को उससे ज्यादा नाम, प्रशंसा मिले।' प्रसिद्ध तबला वादक पंडित किशन महाराज संगत के ऐसे कई प्रसंगों का जिक्र करते थे जो आकस्मिक ढंग से होने और पूर्व अभ्यास के बिना होने के कारण संगीतप्रेमियों की स्मृति में अमिट छाप छोड़ गए थे।ऐसा ही एक प्रसंग नर्तक मोहनलाल से जुड़ा था जो उदयपुर के थे और बनारस आए थे। 1941 के इस प्रसंग में मोहनलाल ने किशन महाराज से शिकायत की थी कि तुम मेरे कार्यक्रम देखने भी नहीं आते हो। इस पर महाराज ने कहा था कि मैं आपके कार्यक्रम में इस कारण नहीं आता हूं कि अगर कभी आपके साथ संगत की तो लोग कहेंगे कि किशन का नृत्य देखा हुआ था, इसलिए इतना अच्छा बजा गया। मोहनलाल ने इसे चुनौती के रूप में लिया और फिर दोनों का एक कार्यक्रम तय हुआ। कार्यक्रम में खूब समां बंधा लेकिन मोहनलाल ने संगतकार की परीक्षा लेने के लिए आखिर में ब्रह्मताल पर नृत्य करने की इच्छा जाहिर की जिसपर महाराज ने जवाब दिया था कि ब्रह्म ताल ही क्यों और भी जो जो ताल आपकी इच्छा हो नाच लीजिए। और फिर यह कार्यक्रम इतना पसंद किया गया कि मोहनलाल जहां जहां कार्यक्रम करते किशन महाराज को ही संगत में बुलाया जाता। किशन महाराज ने यह भी बताया था कि किस प्रकार प्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर से उनकी पहली मुलाकात में महाराज ने अपनी पहचान छुपाई थी लेकिन संगत देखकर रविशंकर उन्हें पहचान गए थे।
उस्ताद जाकिर हुसैन की जो लोकप्रियता है वह कई मुख्य कलाकारों से काफी अधिक है। उनके एकल तबला वादन की मांग खूब होती है लेकिन वह कहते हैं कि तबला संगत का वाद्य है। वह कहते हैं कि जब आपकी तालीम होती है तो आपकी एकल तबला वादन की तालीम होती है। आप सीखी हुई चीजें बजा देंगे और आपकी प्रशंसा हो जाएगी लेकिन जब तक संगत करना नहीं आएगा तब तक आप तबलिए नहीं बन सकते। अपने शुरूआती कार्यक्रमों के बारे में उस्ताद जाकिर हुसैन ने एक बार बताया था, 'मैं पंडित रविशंकर के साथ यात्रा पर था। मेरी उम्र 17 साल की थी। एक कार्यक्रम हुआ, फिर दूसरा कार्यक्रम हुआ, मैंने रविशंकर जी से पूछा कैसा हो रहा है? रविशंकर जी ने कहा कि तुम मेरे साथ तबला बजाते हो लेकिन मुझे देखते क्यों नहीं। जाकिर हुसैन बताते हैं, 'उस दिन जब शाम को कार्यक्रम हुआ, मैं रविशंकर जी की ओर थोड़ा और घूमकर बैठ गया। उस दिन संगत की एक नई किताब खुल गई। उन्हें देखकर बजाते हुए मुझे संगत की सबसे बड़ी तालीम मिली।'