शास्त्रीय संगीत में नहीं रही पहले जैसी सच्चाई

गिरिजा देवी से आलोक पराड़कर की बातचीत



- आज यदि कोई संस्कृत में भाषण करे तो उसे गिनती के श्रोता मिलेंगे लेकिन वहीं यदि कोई सड़क पर लाठियां फेर कर करतब दिखाने लगे तो काफी भीड़ जुट जाएगी। शास्त्रीय संगीत के साथ भी ऐसा ही है। यह भीड़ के लिए नहीं है। इसका एक खास वर्ग है। हां, यह सच है कि नई पीढ़ी का झुकाव शास्त्रीय संगीत की ओर नहीं हो पा रहा है लेकिन मेरा विश्वास है कि 20-25 वर्षों बाद फिर लोग अपनी परंपरा, अपने संगीत की ओर लौटेंगे।


-दिग्गज कलाकारों के सामने परंपरा का संकट नहीं है। नए कलाकार तैयार हो रहे हैं लेकिन दिग्गज कलाकारों का भी दायित्व है कि वे नए कलाकारों को आगे आने का वातावरण बनाएं। उन्हें प्रोत्साहित करें और अपने साथ उन्हें भी कार्यक्रम का अवसर दें। मेरी शिष्याएं मेरी परंपरा को आगे बढ़ाएंगी।


- आप अपने नगरों में देखते हैं कि किस प्रकार रोज नए-नए स्कूल खुल रहे हैं, संस्थान खुल रहे हैं, विश्वविद्यालय खुल रहे हैं लेकिन शास्त्रीय संगीत के बारे में जिस प्रकार सोचा जाना चाहिए नहीं सोचा जा रहा है। शास्त्रीय संगीत कोई ऐसी विद्या नहीं है जिन्हें स्कूलों में सिखाया जा सके। इसके लिए गुरु-शिष्य परम्परा जरूरी है। जब तक सीखने वाले के मन में गुरु के प्रति आदर का भाव नहीं आएगा, शिक्षा देने वाला उसे शिष्य नहीं समझेगा, इसे अच्छी तरह से नहीं सिखाया जा सकता है। ऐसे में इस परम्परा को बचाए रखने के लिए गुरुकुल प्रणाली की जरूरत है लेकिन इसके बारे में कौन सोचेगा?


- शीर्ष और नामी कलाकारों की संगत में गायक, वादक या नर्तक कम कार्यक्रम करते हैं तो इसकी कई वजहें हैं। अव्वल तो आयोजक ही ऐसा नहीं चाहते हैं क्योंकि इसमें धन अधिक खर्च होता हैउन्हें लगता है कि इतना धन खर्च कर दो कार्यक्रम हो सकता है। दूसरी बात यह भी है कि आज शास्त्रीय संगीत में पहले जैसी सच्चाई नहीं रह गई है। दर्शकों में भी वैसा ज्ञान नहीं रह गया है। इसीलिए ऊपरी दिखावा अधिक होता है, वह गहराई नहीं आ पाती है। यही कारण है कि दो शीर्ष कलाकार साथ बैठकर वैसी मेहनत करने से कतराते भी हैं। एक और बात भी महत्वपूर्ण है और वह यह कि हर कलाकार को अपना नाम, अपनी इज्जत प्यारी होती है। कोई कलाकार नहीं चाहता है कि उसके साथ बैठे कलाकार को उससे ज्यादा नाम, प्रशंसा मिले।


- आज नई पीढ़ी के कलाकार अपनी पसंद के कारण दूसरे घरानों की चीजें भी ले लेते हैं और सुनाते हैं। इसके बावजूद कलाकार की पहचान घराने की वजह से ही बनी रहेगी। घराने की व्यवस्था समाप्त नहीं होगी। 


- पहले शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में समय की पाबंदी नहीं थी। आधे घंटे का आलाप होता फिरडेढ़-पौने दो घंटे तक कलाकार कार्यक्रम करते, रात-रात भर संगीत सभाएं चलती रहती थीं। यह भी नहीं था कि किसी शास्त्रीय संगीत के कलाकार के बाद किसी फिल्म कलाकार को बैठा दिया। आज की स्थितियां बदली हैं। आज देर रात तक कार्यक्रम नहीं सुन सकते क्योंकि रात में घर जाते समय अपराधियों का भय सताता है।


- अक्सर मेरी उम्र को देखते हुए लोगों को आशंका होती है कि अप्पा जी अब गा रही हैं या नहीं? मैंने जीवन के 87 वसंत देख लिए हैं। मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहती हूं कि मैं गा रही हैं और खुब गा रही हैं। खूब यात्राएं कर रही हूं। सच तो है कि इस उम्र में इच्छा होती है कि दिन भर बिस्तर पर पड़ी रहूं, सोए-सोए ही खाना खाऊ और सारे काम सोए-सोए ही करू, हाहाहा । लम्बा सफर तय किया है । बहुत धूप-छांव देखी है जीवन की। कह सकती हूं कि जीवन में जो भी किया सोच-समझकर किया। वास्तव में मुझे जीवन में सब-कुछ सुनियोजित तरीके से करने की आदत है। रोटियां भी गिन कर खाती हूं, सीढियां गिनकर चढ़ती हूं कि फिर कितनी सीढ़ियां उतरनी होंगी। हां, जीवन में ऐसा करने से बचती रही हूं जो किसी को बुरा लगे।


- मैं आश्वस्त करना चाहती हूं कि गाना बन्द नहीं होगा। उम्र अपनी जगह है लेकिन मैं गाना चाहती हूं कि बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए, उन्हें सिखाने के लिए, उन्हें समझाने के लिए। संगीत कार्यक्रमों के लिए इस प्रकार की दौड़ लगाते रहना चाहती हूं क्योंकि यह जो शास्त्रीय संगीत का वटवृक्ष है, मैं चाहती हूं वह जमा रहे, उसे कोई उखाड़कर न फेंके।


- आप किसी को भले ही सोने के पिंजरे में बैठा दीजिए लेकिन उसे तो अपना वन ही प्रिय होता है, अपना घर ही प्रिय होता है। अपना घर तो जंगल जैसा हो तो भी अपना लगता है और दूसरे का घर महल हो तो भी पिंजरे की तरह लगता है। मुझे भी अपना बनारस ही प्रिय है। बनारस मेरा घर है, वहीं जीवन बीता हैया कहिए जीवन के अधिकतर वसन्त बीते हैं। मेरा जन्मस्थान है, वह न्यारा है, उसका कोई मुकाबला नहींहै। कोई मुझे सोने-हीरे के महल में भी ले जाकर रख दे तो भी वह मुझे बनारस से प्रिय नहीं हो सकता है। बनारस तो वैसे भी प्रसिद्ध नगर है। चाहे वह कला-संगीत का क्षेत्र हो, साहित्य का, संस्कृति का, और धर्म का तो है ही। इस नगर ने कई गुणी कलाकार संगीत जगत को दिए हैं।


- हमारे राजनेताओं में ऐसे लोगों की कमी होती जा रही है जो कलाकारों के प्रति आदर का भाव रखते हैं। मुझे याद है कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के सामने मेरा गायन था, यह काफी पहले की बात है 1952 कीमेरे लिए केवल दस मिनट का समय तय था लेकिन जब मैंने गाना शुरू किया तो उन्होंने मुझे गाते रहने को कहा। मैं करीब आधे घण्टे तक गाती रही। जवाहरलाल नेहरू, सम्पूर्णानन्द जैसे राजनेता थे जो कलाकारों का सम्मान करते थे। मैं इस परम्परा को बचाए रखना चाहती हूं, इस वटवृक्ष की जड़ों को मजबूत रखना चाहती हूं। मुझे तो अगर दूसरा जनम मिला तो मैं उस जनम में भी गाना चाहती हूं। मैं जीवन के आखिरी वक्त तक गाना चाहती हूं। आखिरी वसन्त तक।


 ( पत्र-पत्रिकाओं के लिए समय-समय पर लिए गए साक्षात्कारों के अंश)


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